गाँव के घर के
अंतःपुर की वह चौखट
टिकुली साटने के लिए सहजन के पेड़ से छुड़ाई गई गोंद का गेह वह
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इसके कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि, गाँव की घर का वह दहलीज, चौखट जहाँ से घर का बाहरी भाग शुरू होता है। सहजन का वह पेड़ जिससे छुड़ाई गई गोंद का गेह जिसका इस्तेमाल औरते अपनी बिंदी साटने के लिए करती थी। अब ऐसा कुछ भी नहीं है।
वह सीमा
जिसके भीतर आने से पहले खाँस कर आना पड़ता था बुजुर्गों को
खड़ाऊँ खटकानी पड़ती थी खबरदार की
और प्रायः तो उसके उधर ही रुकना पड़ता था
एक अदृश्य पर्दे के पार से पुकारना पड़ता था
किसी को, बगैर नाम लिए
जिसकी तर्जनी की नोक धारण किए रहती थी सारे काम, सहज,
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि, घर की वह दहलीज वह सीमा जिसके अंदर आने से पहले घर के बुजुर्गो को खाँस कर या जंजीर बजकर संकेत देना होता था।
प्रायः उन्हे एक अदृश्य पर्दे (वह कोई पर्दा नहीं होता था, यह अदृश्य पर्दे उनकी संस्कार होती थी।) से ही घर के औरतों को बिना उनके नाम लिए बुलाना होता था। जिनकी तर्जनी उँगली सरे काम, सहज रूप से करती थी। अर्थात घर के बड़े लोगे ही घर के सारे फैसले लेते थे। अब सब कुछ बदल गया है।
शंख के चिह्न की तरह
गाँव के घर की
उस चौखट के बगल में
गेरू-लिपी भीत पर
दूध-डूबे अँगूठे के छापे
उठौना दूध लाने वाले बूढ़े ग्वाल दादा के-
हमारे बचपन के भाल पर दुग्ध-तिलक-
महीने के अंत में गिने जाते एक-एक कर
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि, गाँव की घर की वह चौखट जो शंख के चिन्ह की तरह थी। गाँव के घर का जो दरवाजा होता था वो शंख की आकृति का होता था। उस चौखट के बगल मे गेरू-लिपी भीत (गोबर और मिट्टी से बनी दीवाल) पर उठौन दूध लाने वाले बूढ़े ग्वाले दादा के अँगूठा का चिन्ह दूध डुबोकर दीवार पर लगाया जाता था। जिसका हिसाब महीने के अंत मे किया जाता था। हमारे बचपन मे ऐसा देखने को मिलता था।
गाँव का वह घर
अपना गाँव खो चुका है
पंचायती राज में जैसे खो गए पंच परमेश्वर
बिजली-बत्ती आ गई कब की, बनी रहने से अधिक गई रहनेवाली
अबके बिटौआ के दहेज में टी. वी. भी
लालटेनें हैं अब भी, दिन-भर आलों में कैलेंडरों से ढँकी-
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि, गाँव मे अब वो संस्कृत नहीं रही अब सब कुछ बदल चुका है। गाँव के पंचायत मे अब पंच परमेश्वर का कोई काम नहीं रहा, कोई ईमानदार नहीं है। बिजली-बत्ती आ गई है लेकीन वो रहती नहीं है अधिक तो कटी ही रहती है। बल्ब है पर उसमे रोशनी नहीं है। पहले जब बेटों की शादी होती थी तो, दहेज मे लालटेन मिलता था। अब टी. वी. ने लालटेन की जगह ले ली है। अभी भी लालटेन है घर मे लेकिन वो आलों (दिवाल मे ही बना हुआ जगह) मे कैलेंडरों से ढँकी हुई है।
रात उजाले से अधिक अँधेरा उगलतीं
अँधेरे में छोड़ दिए जाने के भाव से भरतीं
जबकि चकाचौंध रोशनी में मदमस्त आर्केस्ट्रा बज रहा है कहीं, बहुत दूर,
पट भिड़काए
कि आवाज भी नहीं आती यहाँ तक, न आवाज की रोशनी,
न रोशनी की आवाज
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि रात मे अधिक अंधेरा होता था। रोशनी के लिए लालटेन मे तेल भरा कर उसे जलाया जाता है। जबकि दूर कहीं चकाचौंध रोशनी में मदमस्त आर्केस्ट्रा बज रहा है और यहाँ तक उसकी आवाज भी ठीक से नहीं आ रही है। यहाँ तो सही से उसकी रोशनी भी नहीं आ रही है। यहाँ न तो बिजली है और नहीं बिजली की कोई आशा। लेकिन अब सब कुछ बदल चुका है।
होरी-चैती बिरहा-आल्हा गूँगे
लोकगीतों की जन्मभूमि में भटकता है एक शोकगीत अनगाया अनसुना
आकाश और अँधेरे को काटते
दस कोस दूर शहर से आने वाला सर्कस का प्रकाश बुलौआ
तो कब का मर चुका है
कि जैसे गिर गया हो गजदंतों को गँवाकर कोई हाथी
रेते गए उन दाँतों की जरा-सी धवल धूल पर
छीज रहे जंगल में,
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि होरी-चैती, बिरहा-आल्हा ये लोकगीतों अब नहीं गए जाते है और नहीं सुनाई देते है। लोकगीतों की जन्मभूमि मे अब एक अनसुना, अनगाया शोकगीत सुनाई देता है। अर्थात सिर्फ शोरगुल ही सुनाई देती है।
दस कोस दूर जब शहर मे आता सर्कस था तो अंधेरे को काटते हुए सर्कस की उस प्रकाश को देखा गाँव के सभी लोग वहाँ जाते थे। अब उस सर्कस का कोई नामों निशन नहीं है। गजदंतों के लिए हाथियों को मारा जा रहा है। हाथियों के दाँत के लिए उनका शिकार कीया जा रहा है। उनके पैरो के निशान से उनका पीछा कर उनके दाँत को रेतकर निकाल लेते है। अपने गजदंतों को गँवाकर हाथी गिर कर मर जाते है।
लीलने वाले मुँह खोले, शहर में बुलाते हैं बस
अदालतों और अस्पतालों के फैले-फैले भी रुँधते-गँधाते अमित्र परिसर
कि जिन बुलौओं से
गाँव के घर की रीढ़ झुरझुराती है।
प्रस्तुत पंक्ति हमारे पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “गाॅंव के घर” कविता से ली गई है। इस के कवि ज्ञानेंद्रोपति जी है। यह कविता उनके नवीनतम कविता संग्रह “संशयात्मा” से ली गई है। जिसमें गाॅंव की संस्कृति-सभ्यता मे हुए बदलाव को दिखाते हुए कवि कहते हैं कि अब जो शहर बुलावा आता है वो सर्कस देखने के लिए नहीं, अदालतों और अस्पतालों से आते है। इन सभी के कारण गाँव की जो रीढ़ झुरझुराती है।