उत्तर- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काव्य-आदर्श प्रबंधकाव्य ही थे, क्योकि प्रबंधकाव्य में मानव जीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है जो छोटी कविताओ या प्रगीत मुक्तिकों (लिरिक्स) मे नहीं मिलता है। उन्हे आधुनिक कविता से शिकायत थी क्योकि आधुनिक कविता मे प्रगीत मुक्तको को बढ़ावा दिया जाने लगा और इनकी रचनाओ का प्रचलन तेजी से बढ़ाने लगा। कहा जाने लगा कि आज कल कोई लंबी कविताएँ पढ़ना नही चाहता, किसी को फुरसत ही नही है।
उत्तर- ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत का अर्थ है की कला लोगों मे कलात्मकता का भाव उत्पन्न करने के लिए है। इसके द्वारा रस एवं माधुर्य की अनुभूति होती है, इसका तात्पर्य है- प्रगीत मुक्तको का चलन अधिक होना और लंबी कविताओ को नकार देना।
उत्तर- प्रगीत या लिरिक काव्य की एक एसी विधा है, जिसमें कवि की वैयक्तिकता और आत्मपरकता दोनों की प्रबल भावना रहती है। ऐसी कविताएँ छोटी होती है, जीवन के विविध पक्षों का उदघाटन जहाँ प्रबंधकाव्य में किया जाता है, वहाँ प्रगीत मे क्षण-विशेष की आत्मप्रता की भावना की अभिव्यक्ति ही संभव होती है। प्रगितधर्मी कविताएँ छोटी होती है, इसमें जीवन की अनेक परिस्थितियों का चित्रण संभव नहीं। इसके बारे मे एसी धरणा प्रचलित रही है कि इसकी अर्थभूमि अत्यंत ही सीमित है एवं एकांगी, जिसमे जीवन की प्रत्येक घटनाओ, अनुभूतियों की अभिव्यति संभव नहीं।
उत्तर- वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविता से तात्पर्य है- किसी सामान्य विषय पर आधारित नाट्य कविताों से । यह आकार की दृष्टि से कुछ लंबी होती है। आत्मपरक प्रगीत भी, नाट्यधर्मी लंबी कविताओ के समान ही होता है। आत्मपरक प्रगीत और नाट्यधर्मी कविता मे मंचन का अंतर होता है।
उत्तर- यदि विद्यापति को हिन्दी का पहला कवि माना जाये तो हिन्दी कविता का उदय ही गीत से हुआ, जिसका विकास आगे चलकर संतों और भक्तों की वाणी में हुआ। गीतों के साथ हिन्दी कविता का उदय कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि एक नई प्रगीतात्मकता (लिरिसिज्म) के विस्फोट का ऐतिहासिक क्षण है। जिसके धमाकें से मध्ययुगीन भारतीय समाज की रूढ़ि-जर्जर दीवारें हिल उठीं, साथ ही जिसकी माधुरी सामान्य जन के लिए संजीवनी सिद्ध हुई।
हिन्दी कविता का इतिहास मुख्यतः प्रगीत मुक्तकों का है। गीतों ने ही जनमानस को बदलने में क्रांतिकारी भूमिका अदा की है। “रामचरितमानस” की महिमा एक निर्विवाद सत्य है, लेकिन ‘विनय-पत्रिका’ के पद एक व्यक्ति का अरण्यरोदन मात्र नहीं है। मानस के मर्मी भी यह मानते हैं कि तुलसी के विनय के पदों में पूरे युग की वेदना व्यक्त हुई है और उनकी चरम वैयक्तिकता ही परम सामाजिकता है। तुलसी के अलावा कबीर, सूर, मीरा, नानक, रैदास आदि। अधिकांश संतों ने प्रायः दोहे और गेय पद ही लिखे हैं।
उत्तर- आधुनिक प्रगीत काव्य का उदय बीसवी सदी मे रोमैंटिक उत्थान के साथ हुआ, जिसका संबंध भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष से है। भक्ति काव्य से अलग इस रोमैंटिक प्रगीतात्मकता के मूल मे एक नया व्यक्तिवाद है, जहाँ ‘समाज’ के बहिष्कार के द्वारा ही व्यक्ति अपनी सामाजीकता प्रमाणित करता है। इन रोमैंटिक प्रगीतो मे भक्तिकाव्य जैसी भावना तो नही है किंतु आत्मीयता और एंद्रियता जरूर है। मैथिलीशरण गुप्त जो कि राष्ट्रीयता संबंधी विचारो तथा भावो को काव्य का रूप देते थे। उनका काव्य भी प्रबंध काव्य था। उस समय उन्हे ‘सामाजिक’ माना गया। लेकिन विद्वान जनो को यह एहसास हो गया कि इन रोमैंटिक प्रगीतो मे भी सामाजिकता है।
उत्तर- प्रस्तुत अंश नामवर सिंह रचित निबंध ‘प्रगीत और समाज’ से उद्धृत है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि को एकाकीपन में पीड़ित मानवता की आवाज एकान्त में सुनायी पड़ रही है। थियोडोर एडोर्नो ने कहा है कि व्यक्ति अकेला है, यह ठीक है परन्तु उसका आत्मसंघर्ष अकेला नहीं है। उसका आत्मसंघर्ष समाज में प्रतिफलित होता है। यही कारण है कि बच्चन जैसे कवि सरल सपाट निराशा को अलग करते हुए एक गहरी सामाजिक सच्चाई को व्यक्त करते हैं।
राम की शक्तिपूजा में राम का जो आत्मसंघर्ष है वह अंततः सामाजिक सच्चाई को व्यक्त करता है। कवि अपने अकेलेपन में समाज के बारे में सोचता है। नई प्रक्रिया द्वारा उसका. निर्माण करना चाहता है। यहाँ व्यक्ति बनाम समाज जैसे सरल द्वन्द्व का स्थान समाज के अपने अंतर्विरोधों ने ले लिया है। व्यक्तिवाद उतना आश्वस्त नहीं रहा बल्कि स्वयं व्यक्ति के अंदर भी अंतःसंघर्ष पैदा हुआ। विद्रोह का स्थान आत्मविडंबना ने ले लिया। यहाँ समाज के उस दबाव को महसूस किया जा सकता है जिसमें अकेल होने की विडंबना के साथ उसका अंतर्द्वन्द्व भी है।
उत्तर- मुक्तिबोध ने सिर्फ लंबी कविताएँ ही नही लिखी। उन्होंने अनेक छोटी कविताएँ भी लिखी है, और छोटी होने के बावजूद लंबी कविताओ से किसी कदर कम सार्थक नही है। वे कविताएँ अपने रचना-विन्यास मे प्रगीतधर्मी है। कुछ विचार से तो नाटकीय रूप के बावजूद मुक्तिबोध की काव्यभूमि मुख्यत: प्रगीतभूमि है। मुक्तिबोध का समूचा काव्य मूलत: आत्मपरक है इसलिए उनकी कविताओ पर पूर्णविचार की आवश्यकता है। लेकिन यह भी है कि यह कविता आत्मपरक होते हुए भी प्रत्येक कविता को गति और ऊर्जा प्रदान करती है।
उत्तर- त्रिलोचन के प्रगीतो मे जीवन, जगत और प्रकृति के जितने रंग-बिरंगे चित्र मिलते है, वे दूसरे जगह दुर्लभ है। वही नागार्जुन की बहिर्मुखी आक्रामक काव्य प्रतिभा के बीच आत्मपरक प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति के क्षण कम ही आते है लेकिन जब आते है तो उनकी विकट तीव्रता प्रगीतो के परिचित संसार को एक झटके से छिन्न-भिन्न कर देती है।
उत्तर- मितकथन का अर्थ होता है – ‘कम शब्दो मे अधिक कहना‘ जो कि केदारनाथ सिंह की कविता में देखने को मिलता है। उन्होने बड़ा ही सीमित शब्दो मे एक विस्तृत भाव को व्यक्त किया गया है।
उत्तर- हिन्दी की आधुनिक कविता में नई प्रगीतात्मकता का उभार देखते है। वे देखते है आज के कवि को न तो अपने अंदर झाँककर देखने में संकोच है न बाहर के यथार्थ का सामना करने में हिचक। अंदर न तो किसी असंदिग्ध विश्वदृष्टि का मजबूत खूटा गाड़ने की जिद है और न बाहर की व्यवस्था को एक विराट पहाड़ के रूप में आँकने की हवस बाहर छोटी-से-छोटी घटना, स्थिति, वस्तु आदि पर नजर है और कोशिश है उसे अर्थ देने की । इसी प्रकार बाहर की प्रतिक्रियास्वरूप अंदर उठनेवाली छोटी-से-छोटी लहर को भी पकड़कर उसे शब्दों में बांध लेने का उत्साह है। एक नए स्तर पर कवि व्यक्तित्व अपने और समाज के बीच के रिश्ते को साधने की कोशिश कर रहा है और इस प्रक्रिया में जो व्यक्तित्व बनता दिखाई दे रहा है वह निश्चय ही नए ढंग की प्रगीतात्मकता के उभार का संकेत है।