कबीर के दोहे
'कबीर' सूता क्या करै, काहे न देखै जागि ॥
जाके संग तें बिछुड़ियां ताही के संग लागि ।
भावार्थ-यहां साहिब स्वयं को चेताते हुए कह रहे हैं-अरे कबीर, तू सोया हुआ क्या कर रहा है ? जाग जा तथा अपने उन साथियों को देख, जो जाग गए हैं। यात्रा बड़ी लम्बी है, जिनका साथ बिछड़ गया है और तू भी पिछड़ गया है, उनके साथ तू फिर से लग जा ।
सिंहों के लेहंड नहीं, हंसों की नहीं पांत ।
लालों की नहि बोरियां, साध न चलै जमात ॥
भावार्थ कबीर साहिब कह रहे हैं कि सिंहों के झुण्ड नहीं हुआ करते तथा न हंसों की कतारें ही दिखाई देती हैं। और रतन बोरियों में नहीं भरे जाते और जमात को साथ लेकर साधु कभी भ्रमण नहीं करते।
राम पियारा छाँड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्यां केरा पंत ज्यूं, कहै कौन सूं बाप ।।
भावार्थ- कबीर साहिब यहां कह रहे हैं कि हे मन! तू अपने प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी जो उपासना करता है, उसे क्या कहा जाए ? एक वेश्या का पुत्र किसको अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना कोई भी गति नहीं।
KABIR KE DOHE
गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह 'कबीर' ता साध की, हम चरनन की खेह ॥
भावार्थ- कबीर साहिब अब सच्चे साधु की पहचान बताते हुए कहते हैं कि हमें ऐसे साधु के चरणों की धूल बन जाना चाहिए, जो अपनी गांठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता तथा न नारी से नेह ही रखता है।
कबीर प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ।।
भावार्थ- कबीर साहिब यहां कह रहे हैं कि जिसने प्रेम रूपी रस को नहीं चखा तथा चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाए, वह तो सूने घर का मेहमान जैसा है, जैसे आया था वैसे ही चला गया।
निरबैरी निहकामता, सांई सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतान का अंग सेह ॥
भावार्थ- अब कबीर साहिब सच्चे-संत के लक्षण बताते हुए कहते हैं–कि किसी से भी दुश्मनी नहीं, मन में कोई कामना नहीं, एकमात्र प्रभु से ही प्रेम | विषय-वासनाओं में निर्लेपता, यही सच्चे साधु के लक्षण हैं।
'कबीर' राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण जाइ ||
फूटा नग ज्यू जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं-तू परमात्मा के अमृत रूपी गुणों का गान करके उनको रिझा ले । राम नाम से तू क्यों बिछड़ रहा है, उससे वैसे ही मिल जा, जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्धि से सन्धि मिलाकर जुड़ जाता है।
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि संदेश भेजते-भेजते मेरा अंदेशा नहीं जा रहा है, अन्तर की कसक दूर होती ही नहीं है, कि प्रियतम मिलेगा भी या नहीं, और कब मिलेगा, हां, अंदेशा यह दूर हो सकता है दो तरह से–या तो हरि खुद आ जाएं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुंच जाऊं।
लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार|
कहौ संतो क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि रास्ता लम्बा है तथा वह घर दूर है, जहां कि तुझे पहुंचना है। रास्ता लम्बा ही नहीं ऊबड़-खाबड़ भी है।कितने ही बटमार वहां पर पीछे लग जाते हैं। संतो, बताओ तो कि हरि का दुर्लभ दीदार तब कैसे हो सकता है ?
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इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं लोही
सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिठं ।।
भावार्थ- कबीर साहिब अपने आत्म-भाव को प्रकट करके हुए कहते हैं कि इस तन को तो दीया बना लूं, जिसमें प्राणों की बत्ती हो तथा तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे खून का एक-एक कण कितना ही अच्छा हो कि इस दीए में अपने प्रियतम का मुखड़ा कभी दिखाई दे जाए।
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागे कोइ ।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई ।।
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि बिरह रूपी सर्प अंतर में ही बसा हुआ है, यह डंसता ही रहता है, कोई भी मंत्र कारगर नहीं हो रहा। राम का वियोगी भला कैसे जीवित रह सकता है, अगर जीवित रह भी जाए तो वह बावला हो जाता है।
अंखड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियां छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि अब तो तुम्हारी बाट देखते-देखते आंखों में झाइयां पड़ गई हैं, तुमको पुकारते-पुकारते जीभ में छाले भी पड़ गए हैं। क्या अब भी तुमको मुझ पर दया नहीं आ रही
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं ॥
भावार्थ- आत्मा कह रही है कि इस तन को जलाकर मैं स्याही बना लूंगी तथा जो कंकाल शेष रह जाएगा, उसकी लेखनी बना लूंगी। उससे प्रेकी पाती लिख-लिखकर अपने प्रियतम राम को भेजा करूंगी।
KABIR KE DOHE
सब रंग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि अब तो यह शरीर रबाब (सरोद) बन गया है–नाड़ियां तांत बन गयी हैं तथा बजाने वाला कौन है इसका ? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता है, या फिर यह विरह में डूबा हुआ मेरा मन ।
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जोवन की आस ।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं इस जवानी की आशा (मद) में पड़कर क्यों अपना जीवन बिगाड़ रहा है। पलास के पौधे को फूलों के झड़ जाने पर उसकी ओर कोई निहारता भी नहीं है, वैसे ही तेरी ये जवानी है।
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जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ ।
जतन जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि जिसके अन्तर में हरि विराज गए, उसके प्रेम को फिर कैसे छिपाया जा सकता है ? दीपक की रोशनी चाहे जितने जतन करके ही छिपाओ, तब भी उसका उजाला तो प्रकट हो ही जाएगा।
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं, अपनी भव्य इमारत को देखकर तू गर्व मत कर। क्योंकि आखिर में तुझे पृथ्वी के भीतर ही लेटना है। और तेरे ऊपर घास ने ही उगना है।
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ ।
तंबोली के पान ज्यू, दिन-दिन पीला होइ ।
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि लोगो तुम पूछते हो कि राम का वियोग कैसा होता है ! सुनो, भक्त उनकी जुदाई में इतना व्यथित रहता है, कि देखकर कोई पहचान भी नहीं पाता कि वह है कौन ? तम्बोली के पान की तरह (वह पान जो पानी में पड़ा रहता है) दिन-दिन वह पीला ही पड़ता जाता है ।
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रतट, तो भी देवैं गाड़ ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि इस अस्थिपंजर के शरीर पर जिस पर चमड़ी का आवरण ढंका है, तू घमण्ड न कर। सर्वोत्तम घोड़े की सवारी तथा एकछत्र राज्य का स्वामी होने पर भी एक दिन तेरे शरीर को लोग भूमि में गाड़ देंगे।
'कबीर' खालिक जागिया और न जागै कोइ ।
कै जग बिषई विष-भर्या, कै दास बंदगी होइ ।।
भावार्थ- अब कबीर साहिब कह रहे हैं कि जो जाग रहा है वह तो मेरा खालिक है। जगत् तो गहरी नींद में निमग्न है, कोई भी नहीं जाग रहा। हां, ये दो ही जागते हैं या तो विषय के विष में डूबा हुआ कोई, या फिर भगवान् का दास जिसकी पूरी रात बंदगी करते-करते गुजर जाती है।
कबीर गर्ब न कीजिये, देही देखि सुरंग ।
बिछुरे पर मेला नहीं, ज्यों केंचुली भुजंग ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि अपनी रूप और लावण्य से भरी देह को देखकर यह मत भूल कि यह सर्प केंचुलीवत बिछुड़ने पर पुनः मिलने वाली नहीं|
कबीर, नौबत आपनी, दित दस लेहु बजाय ।
यह पर पट्टन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥
भावार्थ कबीर साहिब कह रहे हैं- आज माया में निमग्न होकर तू खूब नौबत-नगाड़े भले ही बजवा ले। बाद में तुझे यह ग्राम, बाजार तथा सड़कें पुनः देखने को नहीं मिल पायेंगी।
कबीर धूलि सकेलि के, पुड़ी जो बांधी येह ।
दिवस चार का मेखना, अन्त खेह की खेह ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि तूने मिट्टी को बटोरकर यह शरीर रूपी पुड़िया बना ली है। तू इसे चार दिन देखकर इतरा ले, अन्ततः तो यह मिट्टी ही में मिल जानी है
कबीर मंदिर लाख का, जड़िया हीरा लाल ।
दिवस चारि का बेखना, विनशि जायगा काल ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं, तूने इस लाख के मंदिर (अर्थात् शरीर) में हीरे और लाल जड़ा लिए हैं। ये चार दिन का देखने मात्र का है, अन्त में तो इसे काल ने विनष्ट करना ही है। अर्थात् इस नश्वर शरीर मेंज्ञान रूपी रत्न जो है, इसका सदुपयोग कर ले।
सिर साटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि अगर तुझे अपना शीश भी अर्पित करना पड़ जाय, तब भी अपने मन में यह भाव नहीं लाना कि तूने कोई बहुत अनोखा काम कर लिया है। सिर देने पर अगर हरि से मिलन होता हो तो तू यह न समझना कि यह कोई घाटे का सौदा है।
आपा भेट्यां हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या ने कोउ पत्याइ ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं-अहंकार को मिटा देने से ही हरि से भेंट होती है, लेकिन तूने हरि को ही भुला दिया, अब तो तेरी हानि-ही-हानि है। यह प्रेम की कहानी अनिर्वचनीय है। अगर इसे कहा भी जाए तो भला कौन यकीन करेगा ?
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कबीर सपने रैन के, ऊघरी आये नैन ।
जीव परा बहु लूट में, जागूं लेन न देन ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि रात में सपना देखते-देखते नेत्र खुल गये तो प्रतीत हुआ कि मैं व्यर्थ ही स्वप्न की लूट (आनन्द-क्लेश) में पड़ा था, जागने पर न स्वप्न था, न संसार था।
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि इस संसार की सभी माया सेमल फूल-सदृश हैं। अर्थात्- दिखावा मात्र हैं मन को भरमाने के लिए। अतः के जीवन के व्यवहार एवं चहल-पहल में कहीं खो मत जाना।
दसों दिसा से क्रोध की, उठी अपरबल आग ।
शीतल संगत, साधु की, तहां उबरिये भाग ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि दसों दिशाओं से क्रोध की भयंकर ज्वालाएं उठ रही हैं। जबकि संतों की संगत शीतल होती है, भागकर वहीं जाओ, वहीं तुम्हारा कल्याण होगा।
यह जग कोठी काठ की, चहुँ दिसि लागी आग ।
भीतर रहै सो जलि मुये, साधु उबरे भाग ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि यह संसार तो काष्ठं रूपी मकान है, चारों ओर से इसमें क्रोध की आग लगी है जो इसके भीतर रहेगा, वह जल मरेगा, साधुजन ही भागकर बच पायेंगे ।
गार अंगार क्रोध झल, निन्दा धूवां होय ।
इन तीनों को परिहरैं, साधु कहावै सोय ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि गाली-गलौज अंगार के समान है, क्रोध आंच के समान है, परनिन्दा धुएं के समान है, इन तीनों को जो सर्वथा त्याग दे, वही साधु कहलाने के योग्य है।
अपना तो कोई नहीं देखा ठोंकि बजाय ।
अपना-अपना क्या करे, मोह भरम लपटाय ॥
भावार्थ- साहिब समझा रहे हैं कि मैंने भली-भांति ठोंक-बजाकर देख लिया है, अपना कोई नहीं है। हे मनुष्य ! तू भ्रमपूर्ण मोह से ग्रस्त होकर अपना-अपना क्या करता है ?
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नाहीं काल ।
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि जो दिन आज है, वैसा कल भी रहेगा, यह भ्रम अपने मन में मत पाल, क्योंकि ये आज दुबारा से आने वाला नहीं है। अब भी समय है, सावधान हो जा, नहीं तो मृत्यु सिर पर खड़ी
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव ।
कै सेवा करु साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि इस शरीर का समय बीता जा रहा है, कर सके तो अपना कुछ कल्याण कर ले। तू या तो सन्तों की सेवा कर या सद्गुरु के ज्ञान-गुण रूपी अमृत का पान कर।
कोटि करम लागे रहै, एक क्रोध की लार ।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार ।।
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि एक क्रोध के संबंध में करोड़ों पाप कर्म लगे रहते हैं। जैसे ही मन में अहंकार आया, मानो किए धर्म-कर्म नष्ट हो गये।
"जगत माहि धोखा घना, अहं क्रोध अरु काल ।
पौरिहि पहुंचा मारिये, ऐसा जम का जाल ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि अहंकार, क्रोध तथा कल्पना से संसार में लोग बहुत धोखा खाते हैं। अतः ऐसे यम-जाल को तो पहुंचते ही तोड़ डालो ।
'कबीर' मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत 'कबीर कबीर' ।।
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि-मेरा चित्त जब मर गया और शरीर सूखकर कांटा हो गया, तब हरि मेरा नाम पुकार-पुकार कर ओ कबीर, ओ कबीर कहते हुए मेरे पीछे फिरते हैं।
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोइ जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥
भावार्थ -अब कबीर कह रहे हैं कि भयंकर मृत्यु तो सम्भवतः दूर भी है, इससे भी भयंकर काल (जीव का संशय, अज्ञान) तो शरीर ही में बसता है। इसको अज्ञानी नहीं जानते, परन्तु यह सबको जलाकर धूल कर डालता है। अर्थात्-ऐसे जीव का जीवन निरर्थक चला जाता है।
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ।।
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि घाट की चुंगी लेने वाला धर्मराय (वासना) है, वह गुरुमुख को पहचान लेता है। गुरु-ज्ञान रूपी चिह्न-बिना, अन्त में साकट (मूर्ख लोग) यम के हाथ में पड़ते हैं।
अबरन कों न बरनिये भोपै लख्या न जाइ ।
अपन बाना वाहिया, कहि कहि थाके भाइ ॥
भावार्थ -कबीर कह रहे हैं कि उसका क्या वर्णन किया जाये, जो कि वर्णन से बाहर रहता है। मैं उसे कैसे देखूं ? वह आंख ही मेरे पास नहीं। सबने अपना-अपना ही बाना पहनाया उसे और कह-कहकर उनका है अन्तर थक गया
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि जीवन के सत्संग रूपी खेत को इन्द्रिय-मन एवं कामादि रूपी हिरनों ने खाकर एकदम चौपट कर दिया। इसमें खेत बेचारे का क्या दोष है, जब किसान ही अपने इस खेत (जीवन) की रक्षा करना नहीं चाहता।
धरती करते एक पग, समुन्दर करते फाल ।
हाथों परबत तौलते, ते भी खाये काल ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि पृथ्वी को एक पग में नाप लेने वाले वामन को, समुद्र लांघ जाने वाले हनुमान को, हाथ पर गोवर्धन पर्वत उठाने वाले श्रीकृष्ण को भी काल ने खा लिया। फिर तेरी तो बिसात ही क्या है ?
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बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।
आवन जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि तेरे पुत्र उत्पन्न हुआ है, तो क्या बहुत अच्छा हुआ जो तू प्रसन्नता में मग्न हुआ जा रहा है। चींटियों की पंक्ति के समान जीवों का आवागमन तो लगा ही रहता है। यह कोई निराली बात नहीं है।
कबीर पांच पखेरुआ, राखा पोष लगाय ।
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ।।
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि जीव ने प्राण, अपान, व्यान तथा उदान-इन पांच पक्षियों को अन्न-जलादि से पाल-पोषकर सुरक्षित कर रखा था, एक दिन काल-शिकारी आया और इसको उड़ा ले गया।
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई ।
दूरिग्राह तेरी साइया, जा मरुम कोई होइ ।
भावार्थ - कबीर कह रहे हैं कि जिसको कहीं भी कोई सहारा नहीं मिलता, उसका तू ही एकमात्र सहारा है। जिसका तू हो गया, उससे हुआ, सभी को वहां पर आश्रय मिला। सभी नाता जोड़ लेते हैं। ऐ सांई ! तेरे दरबार में जो भी पहुंचा, महरूम नहीं
कबीर नाव तो झांझरी, भरी बिराने भार ।
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पार ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि इस शरीर रूपी नाव में (इन्द्रिय-असंयम रूपी) अनेक छिद्र विद्यमान हैं। पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा रूपी पराया (मायावी) बोझा लाद दिया है। केवट (सद्गुरु) से तेरा परिचय ही नहीं है, फिर भला कैसे पार उतर सकता है।
कबीर रसरी पांव में, कहं सोवै सुख चैन ।
सांस नगारा कूंच का, बाजत है दिन रैन ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि तेरे पैरों में काल की रस्सी बंधी माया में निमग्न होकर तू कहां सो रहा है ! श्वास रूपी कूच का नगारा रात-दिन तू सुन रहा है, अब तो सावधान हो जा।
बैरागी विरकत भला, गिरही चित्त उदार
दुहूं चूका रीता पड़, वाकूं वार न पार ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि-बैरागी वही अच्छा, जिसके मन में विरक्ति हो तथा गृहस्थ वही अच्छा, जिसका हृदय उदार हो। यदि बैरागी के मन में विरक्ति नहीं और गृहस्थ के मन में उदारता नहीं है तो दोनों का ऐसा पतन होगा कि जिसका कोई ठिकाना नहीं है।
यह जीव आया दूर ते जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि तुझे न जाने किन-किन योनियों में भटकने के बाद यह मनुष्य तन मिला है और इसे इस संसार में बहुत दूर अपने निज स्वरूप में अवस्थित करना है। तू बीच में ही विषयों की वासना में ऐसा रम गया है कि भूल गया है, काल तेरे सिर पर गर्जना कर रहा है।
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमी बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥
भावार्थ-अब बड़े-बड़े राजे, जमींदार, सम्पदाशाली एवं अभिमानियों को लक्ष्य करके सद्गुरु कह रहे हैं कि हम तो यह जाने थे कि ये लोग बहुत भूमि और धन खा जाएंगे; परन्तु सब पदार्थ ज्यों-के-त्यों ही पड़े रह गये, और काल इनको पकड़ कर ले गया।
KABIR KE DOHE
कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसे चोर न सकई लागि ॥
भावार्थ- कबीर के की चोट पर कह रहे हैं कि जो पहर पहर गाता हुआ सचेत रहता है, उसके वस्त्र तथा बर्तन कोई कैसे चुराकर ले जा सकता है ? ऐसे मनुष्य के नजदीक तो चोर फटकता ही नहीं।
तन मन लज्जा ना कर, काम बान उर साल
एक काम सब बस किये, सुर नर मुनि बेहाल ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि जिसके हृदय में कामरूपी बाण पीड़ा उत्पन्न करता है, वह अपने तन-मन की लज्जा त्यागकर कामातुर बन जाता है। एक काम ने ही सबको अपने वश में कर रखा है, उसी से सुर-नर मुनि सभी आहत हैं। अर्थात् कामासक्ति अनन्त दुःखों एवं पापों की मूल है। इसका त्याग । करना ही कल्याणार्थी का परम कर्त्तव्य है।
क्रोध अग्नि घर-घर बढ़ी, जलै सकल संसार ।
दीन लीन निज भक्ति जो, तिनके निकट उबार ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि घट-घट में क्रोध की अग्नि बढ़ी हुई है, सारा संसार इसमें जल रहा है जो विनम्र और अपनी भक्ति में लीन है, उनकी संगति ही श्रेष्ठ होती है।
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा, कुशल कहां सो मित्त ॥
भावार्थ-कालरूपी शिकारी जवानीरूपी खरगोश पर बुढ़ापा रूपी कुत्ते को नित्य छोड़ता है। दो शत्रुओं (बुढ़ापा और काल) के बीच में तुम्हारा झोंपड़ा है, हे मित्र, तेरी कुशल फिर कहां है ?
माली आवत देखि के, कलियां करें पुकार ।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार ।।
भावार्थ-अब सद्गुरु साहिब कह रहे हैं कि माली को बाग में आते
देखकर कलियां पुकार करने लगीं कि जो खिल गई थीं, सभी चुन ली गई, खिल जाने पर कल हमारी बारी भी आ जाएगी। अर्थात्-इस जवानी के मद में डूबे मनुष्य तू दो दिन इतरा ले, आखिर काल तो तेरे पीछे लगा ही है।
'जो उगै सो आथवै, फूले सो कुम्हिलाय ।
जो चुनै सो ढहि पड़, जनमें सो मरि जाय ॥
भावार्थ- -सद्गुरु अब अपनी बात को सिद्ध करते हुए कहते हैं कि उगने वाला डूबता है, खिलने वाला कुम्हलाता है, बनायी हुई वस्तु भी दिन ढह जाती है (मकान आदि) । जन्मा हुआ भी (प्राणी) मरता है।
हरि हीरा, तन जौहरी, ले ले मांड़ी हाटि ।
जब र मिलैगा परिषमी, तब हरि हीरा की साटि ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि हरि तो हीरा है, और जौहरी हैं।हरि का भक्त राम नाम रूपी दुकान बीच बाजार लगी हुई है। लेकिन भगवान् का भक्त ही तो उसे खरीद सकेगा।
कबीर जीवन कछु नहीं, खिन खारा खिन मीठ ।
काल्हि अलहजा मारिया, आज मसाना दीठ ॥
भावार्थ- सद्गुरु कबीर कह रहे हैं कि इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है, इसमें क्षण-क्षण अनुकूलता प्रतिकूलता के खारे क्षण, मीठे क्षण आते ही रहते हैं। जिसने कल किसी वीर को मार गिराया था, आज वह स्वयं श्मशान में लेटा दिखाई दे रहा है।
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।
ना जानों क्या होयगा, ऊगन्ता परभात ॥
भावार्थ-सद्गुरु कह रहे हैं कि हे मनुष्यो ! अभी तुम्हारा कल्याण का मार्ग बहुत लम्बा है, बीच में अज्ञान की अंधियारी रात पड़ी हुई है। जीवन के उगते प्रभात को (ज्ञानोदय एवं मुक्तावस्था) देखने के लिए बीच में जाने क्या-क्या हो, इसलिए सावधानी में ही भलाई है।
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
जन्त्र बिचारा क्या करे, गया बजावनहार ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि श्वास रूपी तार के टूट जाने पर यह शरीर रूपी यंत्र बेकार हो गया। इसमें यन्त्र का क्या दोष, जब उसे बजाने वाला अविनाशी जीव ही चला गया।
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजीक ।
कान पकरि के ले चला, ज्यों आजियाहि खटीक ।।
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि तू किस मद में आकर गाफिल हुआ फिरता है। मृत्यु तो नित्य तेरे निकट आ रही है। एक दिन वह तुझे उसी प्रकार ले जायेगी, जैसे कसाई बकरे का कान पकड़कर ले जाता है और उसे काट डालता है।
कहता हूं कहि जाता हूं, मानै नहीं गंवार ।
बैरागी गिरही कहा, कामी वार न पार ॥
भावार्थ - साहिब कह रहे हैं कि मैं कहता हूं और कहता जाता हूं; परन्तु नादान लोग समझते ही नहीं। साधु वेष में हों या गृहस्थी हों, कामियों का उद्धार नहीं होता है।
भग भोगे भग ऊपजै, भग ते बचे न कोय ।
कहैं कबीर भग ते बचै, भक्त कहावै सोय ॥
भावार्थ-कबीर कह रहे हैं कि जीव को विषयों को भोगने पर पुनः विषय द्वारा जन्म धारण करना पड़ता है, ऐसे लोग जन्म-मरण से नहीं बच पाते। जो विषय वासना से बचता है, वही उच्चकोटि का भक्त कहलाता है (अन्य लोग तो साधारण हैं)।
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि ।
जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥
भावार्थ- कबीर कह रहे हैं कि तुझे जो अनमोल पदार्थ मिल गया था, उसे तो तूने छोड़ दिया तथा कंकड़ हाथ में थाम लिए। इसलिए हंसों के साथ से तू बिछुड़ गया तथा बगुलों के साथ हो लिया|अर्थात् आखिरी मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते भी साधु के सिद्धियों के फेर में पड़ जाने से वह फिर से दुनियादारी की तरफ लौट आया।
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झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत चबैना काल का कछु मुठी कछु गोद ।।
भावार्थ-सद्गुरु कबीर कहते हैं कि मनुष्य नाशवान वस्तुओं सुख कहता है जो नित्य नहीं मिलने वाला है और उसी में के सुख प्रसन्नता मानता है। ऐसे लोग तो काल के चबैना हैं, वह किसी को अपनी मुट्ठी में पकड़कर चबा रहा है तो किसी को गोद में बैठाकर चबाने को आतुर है।
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।
बिगरा काज संभारि ले, करि छूटन की ठौर ॥
भावार्थ-सद्गुरु कह रहे हैं कि समय बीत जाने पर (बुढ़ापा आने पर) शक्ति क्षीण हो गयी; काले बाल सफेद हो गये। फिर कहते हैं कि अब तो बिगड़े हुए काम को संभाल लो और बंधनों से छूटने का स्थान (सत्संग) में जाना शुरू कर दे। ।
सत ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहँ कबीर ता दास को, कबहुँ न आवै चूक |
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि जो सत्तू में से सत्तू और रोटी में से रोटी का टुकड़ा बांट देता है, ऐसा भक्त अपने धर्म-मार्ग से कभी च्युत नहीं होता।
कहैं कबीर देय तू, जब तग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ||
भावार्थ-सद्गुरु कबीर साहिब कह रहे हैं कि जब तक तेरी यह देह है तब तक तू कुछ-न-कुछ देता रह। अर्थात्-शुभ कामों के लिए कुछ-न-कुछ देता रह। नहीं तो जब यह तेरी देह धूल में मिल जायेगी तब कौन तुझसे कहेगा कि 'दो' ।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय ॥
भावार्थ-सद्गुरु अब भोजन के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मनुष्य जैसे भोज्य पदार्थों का सेवन करता है, उसका मन भी वैसा ही हो जाता है। वह जैसा पानी पीता है, वैसी ही उसकी वाणी हो जाती है। अर्थात् इसलिए अपने आहार, विहार तथा आचरण पर जरूर ध्यान देना चाहिए।
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार ।
औसर मानुष जन्म का बहरि न बारम्बार ॥
भावार्थ-अब कबीर साहिब कह रहे हैं कि हे बन्दे ! तू प्रभु चरणों में अपनी लौ लगा। तभी तुझे अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है। तुझे इस मनुष्य जन्म जैसा उत्तम अवसर बारम्बार नहीं मिलने वाला।
बार बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच ।
बनजारे का बैल ज्यों, पैड़ा माही मीच ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि मैं तुझे बारम्बार चेता रहा हूं कि जैसे बनजारे (बैलों का व्यापार करने वाले) का बैल बीच मार्ग में ही मर जाता है, वैसे ही तू भी अचानक एक दिन मर जायेगा।
मन राजा नायक भया, टांड़ा लादा जाय ।
है है है रही, पूंजी गयी बिलाय ॥
भावार्थ साहिब कह हैं कि हे जीव ! तेरा मन राजा बनकर व्यापारी बन गया और जाकर सांसारिक विषयों का टांड़ा (बहुत सौदा) कर डाला। यह जानकर कि भोगों-ऐश्वर्यों में लाभ है-क्योंकि सभी कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर तेरी मानवता रूपी पूंजी तो विलुप्त हो गई।
गांठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह ।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥
भावार्थ-सद्गुरु कह रहे हैं कि तूने जो गांठ में बांध रखा है, उसे हाथ में ले ले, और जो हाथ में हो उसे परोपकार के कार्यों में लगा। मनुष्य योनि के अलावा अन्य योनियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यहीं ले ले।
जो जल बाढ़ नाव में, घर में बाढ़ दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ॥
भावार्थ-अब साहिब कहते हैं कि यदि तुम्हारी जीवनरूपी नाव में जल
भावार्थ- साहिब आगे कहते हैं कि भिक्षा मांगने वाले का बोलना अच्छा होता है, चोरों को चुप्पी साधना उत्तम रहता है, माली के लिए बरसात अच्छी है, तो धोबी के लिए धूप का होना श्रेयस्कर रहता
'काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यों समुझाय ।
कहँ कबीर मैं क्या करूं, कोई नहीं पतियाय ॥
भावार्थ- सद्गुरु कबीर साहिब कहते हैं कि मैंने लोगों को बहुत प्रकार से समझाया कि तुम्हें भी एक दिन काल अपना ग्रास बना लेगा, लेकिन मैं क्या करू, कोई मेरी बात पर विश्वास ही नहीं करता।
निंदक नियड़े राखिये, आंगणि कुटि बंधाइ ।
बिन सावण पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ ॥
भावार्थ कबीर कह रहे हैं कि अपने निन्दक को सदैव अपने पास ही रखना चाहिए, अपने आंगन में उसके लिए कुटिया भी बना देनी चाहिए; क्योंकि वह सहज ही बिना साबुन तथा बिना पानी के धो-धोकर आपको उज्ज्वल कर देता है।
भक्ति बिगाड़ी कॉमिया, इन्द्रिन केरे स्वाद ।
हीरा खोया हाथ सों, जनम गंवाया बाद ।।
भावार्थ कबीर साहिब कह रहे हैं कि जो इन्द्रियों के स्वाद में पड़ गए तो उनकी भक्ति तो विनष्ट हो गई। ऐसे मनुष्य हाथ से ज्ञान रूपी हीरा खोकर, जीवन को व्यर्थ ही समाप्त कर बैठे।
काम-काम सब कोइ कहै, काम न चीन्हे कोय ।
जेती मन की कल्पना काम कहावै सोय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि काम-काम तो कर कोई कहता है, लेकिन इनमें से कोई भी काम का रूप नहीं पहचानता। विषय सम्बन्धी मन की जितनी कल्पनाएं हैं, ये सब काम के ही रूप हैं।
काम क्रोध मदं लोभ की, जब लग घाट में खान ।
कबीर मूरख पण्डिता, दोनों एक समानं ॥
भावार्थ -'कबीर साहिब कहते हैं कि काम, क्रोध, मोह, अभिमान आ दुर्गुणों का जब तक मनुष्य के हृदय में निवास है, तब तक ऐसा मूढ़ व्यक्ति और पण्डित एक समान ही हैं।
मरेंगे मरि जाएंगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसाएंगे, छोड़ि बसन्ता गाम ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि सांसारिक मोह, माया, भोगों में लिप्त खुद भी मरेंगे और जो इनकी संगति करेगा, उन्हें भी मार डालेंगे। फिर कुछ दिन में उनका कोई नाम भी नहीं लेगा। इस तरह ये बसा हुआ ग्राम: छोड़कर जंगल में अपनी बस्ती बसायेंगे। अर्थात्- इस मनुष्य तन को छोड़कर पशुयोनि में विचरण करेंगे।
एक दिन ऐसा होयगा, सबसे परै बिछोह ।
राजा, राना, राव, रंक सावध क्यों नहिं होय ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि एक दिन ऐसा आयेगा, जब तुझे राजा, राणा, धनी, गरीब सबसे बिछुड़ना पड़ेगा। इस सत्य को जानकर भी तू सावधान क्यों नहीं हो रहा है।
मन ते माया ऊपजै, माया तिरगुण रूप ।
पांच तत्त्व के मेल में, बांधे सकल सरूप ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कहते हैं कि माया मन से ही उत्पन्न होती है, इसमें ये तीन गुण (सत, रज, तम) मिले हुए । पृथ्वी, जल आदि जड़तत्त्व के मेल में ही मनोमय-माया ने सम्पूर्ण शरीरों का निर्माण कर रखा है।
कामी अमी न भावई, विष को लेवै शोध ।
कुबुद्धि न भाजै जीव की, भावै ज्यों परमोध ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कहते हैं कि कामी पुरुष को ब्रह्मचर्य रूपी अमृत अच्छा नहीं लगता, वह विषय रूपी जहर को खोज ही लेता है, ऐसे मनुष्य की कुबुद्धि कभी दूर नहीं होती, तुम चाहे जितना भी उसे समझाओ ।
दीपक सुन्दर देखि के, 'जरि-जरि मरत पतंग |
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरत अंग ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि जैसे दीपक की तेज लौ देखकर, उससे मोहित होकर पतंगा जल-जल मरता है। इसी प्रकार विषय-वासना बढ़ जाने पर, कूष्ट पाते हुए भी मनुष्य उन्हें नहीं त्यागना चाहता ।
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जो ऊग्या सो आथवै, फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि जिसका उदय हुआ है, वह अस्त है भी हो गया, जो फूल खिला है वह कुम्हलाएगा भी। जो मकान चिना गया है वह कभी-न-कभी तो गिरेगा ही। ठीक इसी तरह जो भी दुनिया में आया है उसे एक न एक दिन तो यहां से कूच करना ही है।
बालू जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप ।
ऐसी मीठी कछु नहीं, जैसी मीठी चूप ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कहते हैं कि बालू के सदृश अन्य में किरकिराहट नहीं, धूप के समान अन्य में उजलापन नहीं और चुप रहने से मीठी कोई भी वस्तु नहीं है। अर्थात् जिस जीव में ऐसे गुण विद्यमान हैं, उससे बढ़कर और काई बात नहीं हो सकती।
रितु बसंत याचक भया, हरखि दिया द्रुम पात ।
ताते नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात ॥
भावार्थ-साहिब कह रहे हैं कि बसंत ऋतु ने याचना की तो वृक्षों ने प्रसन्नमना होकर अपने पुराने पत्ते दे दिए। इससे शीघ्र ही उनमें नई-नई कोपलें फूटने लगी हैं, सत्य है, दिया हुआ कभी निष्फल नहीं जाता अपितु पुनः उत्तम रूप में मिलता है।
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ऊजड़ खेड़े टेकरी, घड़ि घड़ि गये कुम्हार ।
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि जंगल की भूमि जोतने वाला किसान और ऊंची भूमि को खोद-खोदकर नीची करने वाले कुम्हार की तो कौन कहे, जब लंकाधिपति रावण जैसा शूरवीर विद्वान भी दुनिया से कूच कर गया। फिर तेरी तो बिसात ही क्या है ?
आज काल के बीच में, जंगल होगा बास ।
ऊपर ऊपर हल फिरै ढोर चरेंगे घास ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि तू तो आजकल के चक्कर में पड़ा रह जाएगा और तेरा यह शरीर जंगल में जला या गाड़ दिया जायेगा।फिर इसके ऊपर-ऊपर हल चलेंगे और पशु घास चरेंगे।
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि जिस शरीर पर तू अभिमान कर रहा है, अंत समय में जब इस शरीर को जलाया जायेगा तो तेरे शरीर की हड्डियां लकड़ी के सदृश तथा केश घास के समान जल जायेंगे। जगत् के सभी लोगों को जलते हुए देखकर मुमुक्षु (कबीर साहिब जैसे) संसार से विरक्त हो जाता है ।
कबीर घास न निंदिए, जो पाऊँ तलि होइ ।
उड़ि पड़े जब आंखि मैं, बरी थुहेली होइ ।
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि नीचे पड़ी हुई घास का भी कभी अनादार नहीं करना चाहिए। अगर उसका एक छोटा-सा तिनका आंख में गिर जाए तो बड़ी पीड़ा पहुंचाता है।
मीठा सब कोय खात है, विष है लागे धाय ।
नीम न कोई पीवसी सबै रोग मिट जाय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कहते हैं कि मिठाई को सभी बड़े चाव से खाते हैं जो रोग के रूप में परिणत होकर मनुष्य को लगती है। लेकिन नीम का काढ़ा कोई नहीं पीता, जिससे सभी रोग मिट जाते हैं। अर्थात्-नाना प्रकार के भोगों को तो सभी भोगते हैं, जिनका परिणाम भयंकर होता है। त्याग और वैराग्य की ओर कम ही लोग उन्मुख होते हैं जिससे कि उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
गुरु को चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि गुरु के पास अधिक धन है और यह बात उसके शिष्यों को पता लग जाती है तो वे अपने गुरु को विष देकर मारने से भी नहीं चूकते। इसी तरह कितने ही पुत्र भी अपने पिता को मारकर धन ले लेते हैं, ऐसा माया का व्यवहार होता है।
माया माया सब कहै, माया लखै न कोय
जो मन से न ऊतरै, माया कहिये न सोय ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि सभी माया माया की रट तो लगाए रहते हैं लेकिन कोई माया के स्वरूप को नहीं परखता। जिसका स्मरण मन से नहीं जाता अर्थात्- -मन में जिसकी अत्यन्त आसक्ति है, उसी का नाम माया है।
माया छोड़न सब कहै, माया छोरि न जाय ।
छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कहते हैं कि सभी कहते हैं, यह माया बड़ी बुरी बला है, इसको छोड़ देना चाहिए; लेकिन शीघ्रता से इसे छोड़ता कोई नहीं। जो अधूरे रूप से छोड़ने की बात भी करते हैं, उन्हें बहुत थपेड़े सहने पड़ते
साधू ऐसा चाहिए, आई देय चलाय ।
दोष न लागै तास को, शिर की टलै बलाय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि साधु को चाहिए कि वह पूजा में आया हुआ धन पुनः धर्म कार्यों में लगा दे। ऐसा करने से माया के दोष (काम, क्रोध, लोभ, मोह, आसक्ति) आदि उसे नहीं छू पायेंगे और उसके सिर से यह बलाय भी टल जायेगी।
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय ।
आप ठगा सुख ऊपजै, और ठगे दुःख होय ॥
भावार्थ- सद्गुरु फिर कहते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम स्वयं को ठगा देना (अपनी भौतिक हानि करा लो) वह अच्छा है, परन्तु अन्य किसी को ठगने का प्रयास कदापि न करना। क्योंकि अपने को ठगा देने से सुख मिलता है, और अन्य को ठगने से वर्तमान- भविष्य दोनों दुःखों की खान बन जाते हैं।अर्थात्- यदि तुम्हारी कुछ लौकिक वस्तुएं छिन भी जायें, तो हानि मुख्य रूप से नहीं है। फिर से अर्जित कर ली जाएंगी। परन्तु छल-कपट या बलपूर्वक दूसरे के लिए हुए पदार्थ का तो लोक-परलोक में हिसाब देना ही होगा और वर्तमान जन्म में अपने मन में भय-सन्ताप तो बने रहेंगे ही।
इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति |
कहैं कबीर तहं जाइये, यह सन्तन की प्रीति ॥
भावार्थ-अब कहते हैं कि जहां उपास्य, उपासना-पद्धति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और तेरा मन आदि मिले, वहीं पर जाना।
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गारी ही से ऊपजै, कलह कष्ट और मीच ।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ॥
भावार्थ- अब सद्गुरु समझाते हुए कहते हैं कि गाली से झगड़ा, सन्ताप एवं मरने-मारने तक की नौबत आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त होकर चलता रहता है, वही सन्त है, और जो (गाली-गलौज एवं झगड़े में पड़ जाता है, वह तो नीच का नीच ही है।
या दुनिया में आय के, छांड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना होय सो लेइ ले, उठी जात है पैंठ ।।
भावार्थ- सद्गुरु यहां पर कह रहे हैं कि इस संसार में आकर के (मानुष तन पाकर) तुम सब प्रकार के अभिमान को त्याग दो, जो खरीदना हो खरीद लो, नहीं तो सद्गुरु रूपी बाजार बन्द होने को जा रहा है।
या माया जग भरमिया, सबकी लागी उपाध ।
यहि तारण के कारने, जग में आये साध ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि इस माया ने समस्त जीवों को मोहित कर भ्रम में डाल रखा है और सबको बुराइयों में लिप्त कर रखा है। इस माया के फंद से जीवों को छुड़ाने के लिए ही संतजनों का प्रागट्य हुआ है।
करक पड़ा मैदान में, कुकुर मिले लख कोट ।
दावा कर कर लड़ि गये, अन्त चले सब छोड़ ॥
भावार्थ-साहिब कह रहे हैं कि हड्डी (करक) मैदान में पड़ी है, लाखों-करोड़ों कुत्ते उस सूखी हड्डी को खाने के लिए झपट पड़े और आपस में लड़-लड़कर मर गये और अन्त में सब छोड़कर चल दिये।
खान खरच बहु अन्तरा, मन में देखु विचार |
एक खवावै साधु को, एक मिलावै छार ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि तू अपने मन में विचार करके देख। खाने और खर्चने में भी भारी अन्तर है। एक तो केवल निर्वाह हेतु सात्विक वस्तुओं को स्वयं खाता है और साधुओं को भी खिलाता है, दूसरा इसे स्वयं के भोग-विलासों में लगाकर इसे धूल में मिलाता है।
खाय पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरियां नरा, संग 'न चले छदाम ।।
भावार्थ- सद्गुरु कह रहे हैं कि पका-खा और लुटाकर तू अपना यह जन्म संवार ले, नहीं तो संसार से कूच करते समय तेरे साथ एक छदाम भी नहीं जायेगा।अर्थात्-जीव जो भी मेहनत से कमाए, उससे अपना और परिवार का पोषण भी करे और जो बचे तो उसे सत्कार्यों में दान करे, यही कल्याण का मार्ग है।
लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय ।
शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं - अगर तेरे गुरु लाख कोस पर निवास करते हों, तो भी अपना मन उनके चरणों में लगाता रह और गुरु के सदुपदेश रूपी छोड़े पर सवार होकर अपने चित्त को गुरुदेव के पास पल-पल ले जाता लाता रह ।
पानी केरा बुदबुदा, इस मानुष की जात ।
देखत ही छिप जाएंगे, ज्यों तारा परभात ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि मनुष्य की हालत पानी के बुलबुले के समान है। देखते-देखते यह छिप जाएगा, जैसे प्रातःकाल की बेला में दिखना बन्द हो जाते हैं।
कबीर तहां न जाइये, जहां जो कुल को हेत ।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत ॥
भावार्थ- अब आगे कहते हैं कि ऐसी जगह पर कदापि न जाना चाहिए जहां पर पूर्व कुल-कुटुम्ब का संबंध हो । क्योंकि वे लोग तुम्हारी के साधुता के महत्त्व को नहीं समझेंगे। केवल तुम्हें शारीरिक नाम से ही पुकारेंगे और कहेंगे कि फलाने का लड़का आज यहां आया है। तुम्हारे साधुपने का उनकी नजरों में कोई महत्त्व नहीं होगा।
कबीर तहां न जाइये, जहां सिद्ध को गांव ।
स्वामी कहै न बैठना, फिर फिर पूछे नांव ॥
भावार्थ- सद्गुरु फिर कहते हैं कि अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिद्धों के स्थान पर भी कभी मत जाना, क्योंकि वो स्वामी तुझे ठीक से बैठने को तो कहेंगे नहीं, बारम्बार केवल तेरा नाम ही पूछते रहेंगे।
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कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि तू या तो खाने में मग्न है या सोने में और किसी बात पर तेरा ध्यान नहीं। सद्गुरु के ज्ञानोपदेश जो आदि से अन्त तक के तेरे मित्र हैं, उनको तू बिल्कुल ही भूल गया है।
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हेत ।
अब पछितावा क्या करे, चिड़ियां चुग गईं खेत
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि तेरे जो अच्छे दिन थे वे तो तूने आरामतलबी में गुजार दिए, लेकिन हे अभागे तूने सद्गुरु से नेह नहीं किया। अब मरने के समय पछताने से क्या होता है, जब कामादि-भोग, लिप्सा रूपी चिड़ियों ने तेरे मानुष तन रूपी खेत को नष्ट कर दिया।
जग में बैरी कोय नहीं, जो मन शीतल होय ।
या आपा को डारि दे, दया करे सब कोय ॥
भावार्थ- कबीर साहिब कह रहे हैं कि यदि तेरे मन के अन्दर शीतलता विद्यमान है तो संसार में तेरा कोई वैरी नहीं है, इसलिए इस अहंकार को त्याग दे। तू देखना कि सभी तेरे ऊपर दया रूपी अमृत की बरसात करने लगेंगे।
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कहते को कहि जान दे, गुरु की सीख तू लेय ।
साकट जन और श्वान को, फेरि जवाब न देन ॥
भावार्थ-अब आगे कहते हैं कि तू उलट-पुलट बात कहने वाले को जान दे, तू गुरु की ही शिक्षा को धारण कर, याद रख साकट (दुष्टों) तथा कुत्ते को पलटकर जवाब नहीं देना चाहिए।
मीठा सब कोय खात है, विष है लागे धाय ।
नीम न कोई पीवसी सबै रोग मिट जाय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कहते हैं कि मिठाई को सभी बड़े चाव से खाते हैं जो रोग के रूप में परिणत होकर मनुष्य को लगती है। लेकिन नीम का काढ़ा कोई नहीं पीता, जिससे सभी रोग मिट जाते हैं। अर्थात्-नाना प्रकार के भोगों को तो सभी भोगते हैं, जिनका परिणाम भयंकर होता है। त्याग और वैराग्य की ओर कम ही लोग उन्मुख होते हैं जिससे कि उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
साधू ऐसा चाहिए, आई देय चलाय ।
दोष न लागै तास को, शिर की टलै बलाय ॥
भावार्थ-कबीर साहिब कह रहे हैं कि साधु को चाहिए कि वह पूजा में आया हुआ धन पुनः धर्म कार्यों में लगा दे। ऐसा करने से माया के दोष (काम, क्रोध, लोभ, मोह, आसक्ति) आदि उसे नहीं छू पायेंगे और उसके सिर से यह बलाय भी टल जायेगी।
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