साहित्य

MY HINDI LITERATURE

साहित्य जिन्दगी को सरल बनाने का एक जरिया है. जिन्दगी की तमाम मुश्किलों, उलझनों को शब्दों में पिरो कर व्यक्त करने से न केवल जीने की राह आसान होती है, बल्कि कभी कभी नयी राहें भी दिख जाती हैं !

जिन्दगी की वो तमाम बातें जो शायद मैंने किसी से नहीं कही!

कहने की हिम्मत नहीं हुई, या सही वक़्त नहीं मिला, या फिर सही शख्स नहीं मिला जो इसे ठीक तरह समझ पाता. कुछ लोग मिले भी तो उनसे सब कुछ कह पाना सम्भव नहीं हुआ. खैर जो भी हो..

मेरी मधुशाला

'मधुशाला' डॉ हरिवंश राय बच्चन की सर्वश्रेष्ठ कृति है. 2005 में मुझे पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ एक मित्र के माध्यम से. शायद मैं पूरे पन्ने खत्म भी नहीं कर पाया, मय का असर शुरू हो गया और मेरे कदम पढने के बजाय लिखने की तरफ बहक गए. तब से आज तक तमाम अवसरों पे मैंने 'मेरी मधुशाला' शीर्षक के अंतर्गत ढेरों मुक्तक लिखे! बानगी देखिये:

भले स्वर्ग हो कितना सुन्दर,

चहुँ दिश फूल बरसते हों,

चैन कहाँ, जब मय की खातिर,

हर पल होठ तरसते हों,

ऐसा स्वर्ग मुझे न भाए,

जहाँ न मिलता हो प्याला,

मौत ! मुझे उस नर्क में ले चल,

जहाँ कहीं हो मधुशाला !

तुम मधुवन में आके बैठो,

ले कर के मधु साथ में,

मैं मधुकर बन जाऊं, खाली

प्याला ले कर हाथ में,

तुम बन जाओ पिलाने वाली,

मैं बनूँ पीने वाला,

आओ मिलकर आज सजाएं,

हम तुम दोनों मधुशाला !

रामलीला

(मेरे द्वारा लिखित लगभग 10 कहानियों में से एक, और शायद सर्वश्रेष्ठ ! 'साहित्य कुञ्ज' से प्रकाशित)

सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। रामलीला का समय आ चुका था। शाम अँधेरे में तब्दील हो गई थी। इस बार अपेक्षाकृत ज़्यादा ठंडक पड़ रही थी। पूरे मैदान में पुआल डाल दिया गया था।

धीरे-धीरे पर्दा उठा। सारे कलाकार मंच पर दिखे। ऐसा पहले भी हुआ करता था, जब रामायण की आरती होने वाली होती थी। सभी कलाकारों ने बारी-बारी से अपना परिचय दिया। पर्दा गिरा। मैं समझ गया कि अब रामायण की आरती होने वाली है। कि तभी-

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प्रेम-व्यथा

(यह कहानी २००६-०७ में लिखी थी ! 'प्रतिलिपि' से प्रकाशित)

अगले दिन ऑफिस बंद था| प्रेम के मन में एक उथल-पुथल सी मची थी| शुकून पाने के लिए वो पार्क में चला गया| दोपहर का वक़्त था| पार्क में ज्यादा भीड़ न थी| अधिकतर ‘कपल्स’ ही नज़र आ रहे थे| कोई किसी के कंधे पे हाथ रखे हुए था, कोई किसी के गोदी में सिर| प्रेम को लगा कि जैसे सब उसे चिढ़ा रहे थे| उसका मौन-उपहास कर रहे थे|

पार्क के कुछ दूर आगे ही एक वाइन-शॉप थी| प्रेम के कदम उसी ओर चल पड़े| उस दिन पहली बार उसने शराब को हाथ लगाया| हाथ ही नहीं लगाया बल्कि पिया भी| नशे की हालत में आदमी अपनी तमाम जिम्मेदारियों को भूल जाता है| किसी हद तक पुरानी बातें भी| शायद इसीलिए पीने वाले शराब को ग़म की दवा मानते हैं|

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