कविता 

सागरात हिमखंड पुरून उरावा

सागरात हिमखंड पुरून उरावा;  

तसे हे दुःख

सुळक्या-सुळक्याने चालून येतात 

आठवणींचे दाहक थेंब... थेंब 

अंगावर तेजाब शिडकावा 

जाळ जाळ थरकाप करून जातात 


खांद्यावर आयुष्याचा हा असा क्रूस 

कपाळी ‘प्रारब्ध’ पाटी ठोकून 

तुम्ही शहाजोग हात झटकले 

आता भूतकाळाची त्वचा सोलून 

नितळ चेहऱ्याने कसे मिरवावे?


~

दया पवार  | बलुत, (१९७८) कोंडवाडा (१९७४)

[ही कविता मला माझ्या आयुष्याचा आरसा वाटते. माझा चेहरा असा हा गोठलेला. समुद्रात हिमखंड पोसला जातोय.  त्याच शिखर तेवढं लोकांना दिसत.]

स्वतःच्या उगवण्याची...

प्रकाश आणि काळोखाच्या दरम्यान 

प्रेम आणि दुःखाच्या दरम्यान 

मी वेदनेनंतरची जागा कवितेला दिली 


मी असे साक्षात 

स्वतःला पेरून टाकले जमिनीत 

आणि बांधावर उभे राहून 

वाट बघत राहिलो 


स्वतःच्या उगवण्याची...


~ नामदेव ढसाळ  | तुही यत्ता कंची? तुही यत्ता (१९८१)

शंबूक का कटा सर 

जब भी मैंने

किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर

घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा

मेरे कानों में भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी

जैसे हर एक टहनी पर लटकी हो लाखों लाशें

ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर। 

मैं उठकर भागना चाहता हूँ

शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है

चीख़-चीख़कर कहता है--

युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ

बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है। 


मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह तड़प उठते हैं

तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी

यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;

जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है

अँधेरे की काली पर्तों में 


यहाँ गली-गली में

राम है, शंबूक है

द्रोण है, एकलव्‍य है

फिर भी सब ख़ामोश हैं

कहीं कुछ है

जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को

बाहर नहीं आने देता


कर देता है रक्‍त से सनी 

उँगलियों को महिमा-मंडित। 


शंबूक ! 

तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर

समा गया है जो किसी भी दिन

फूटकर बाहर आएगा

ज्‍वालामुखी बनकर !


~ ओमप्रकाश वाल्मीकि | शंबूक का कटा सर (सितंबर 1988)

चूल्हा मिट्टी का

चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की 

तालाब ठाकुर का।


भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का 

खेत ठाकुर का। 


बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का 

हल की मूठ पर हथेली अपनी 

फ़सल ठाकुर की। 


कुआँ ठाकुर का, पानी ठाकुर का 

खेत-खलिहान ठाकुर के, गली-मुहल्ले ठाकुर के 

फिर अपना क्या? 

गाँव? 

शहर? 

देश? 


~ ओमप्रकाश वाल्मीकि  | दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 56)

मुट्ठी भर चावल

ओ, मेरे प्रताड़ित पुरखो, 

तुम्हारी स्मृतियाँ 

इस बंजर धरती के सीने पर 

अभी ज़िंदा हैं 

अपने हरेपन के साथ 


तुम्हारी पीठ पर 

चोट के नीले गहरे निशान 

तुम्हारे साहस और धैर्य को 

भुला नहीं पाए हैं अभी तक। 


सख़्त हाथों पर पड़ी खरोंचें 

रिसते लहू के साथ 

विरासत में दे गई हैं 

ढेर-सी यातनाएँ 

जो उगानी हैं मुझे इस धरती पर 

हरे-नीले-लाल फूलों में। 


बस्तियों से खदेड़े गए 

ओ, मेरे पुरखो, 

तुम चुप रहे उन रातों में 

जब तुम्हें प्रेम करना था 

आलिंगन में बाँधकर, 

अपनी पत्नियों को। 


तुम तलाशते रहे 

मुट्ठी भर चावल 

सपने गिरवी रखकर। 


ओ, मेरे अज्ञात, अनाम पुरखो 

तुम्हारे मूक शब्द 

जल रहे हैं 

दहकती राख की तरह 

राख : जो लगातार काँप रही है 

रोष में भरी हुई। 


मैं जानना चाहता हूँ 

तुम्हारी गंध... 

तुम्हारे शब्द... 

तुम्हारा भय... 

जो तमाम हवाओं के बीच भी 

जल रहे हैं 

दीए की तरह युगों-युगों से! 


~ ओमप्रकाश वाल्मीकि | दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 69)